संत कौन है? | संत के क्या लक्षण हैं? | Who is the saint
संत कोई विशेष व्यक्ति का नाम नहीं कोई विशेष कपड़े वस्त्र या कोई विशेष तरह के रूप सज्जित इंसान का नाम नहीं होता ,यह एक तरह के स्वभाव का नाम होता है। अनंत काल तक जब मनुष्य सत्संग करता है ,इस ब्रह्मांड की शक्तियों से जुड़ता है, और उसके महत्व को जब जान पाता है तब निश्चित रूप से उसके स्वभाव में, और उसके जीवन में परिवर्तन आता है, तब उसे संत कहा जाता है।
संत कौन है? | Who is the saint
संत को उसके स्वभाव, उसके लक्षण , द्वारा पहचानना पड़ता है। क्योंकि संत कभी अपने आप को स्वता प्रकट नहीं करते ।वे अपने आप को छिपाने का ही प्रयास करते हैं। अतः हमें अपने गुणों के द्वारा ही अपनी बुद्धि कौशल से उन्हें पहचानना पड़ता है।
संत ,ज्ञानी ,भक्त भगवान की कृपा की मूर्ति होता है ,भगवान का स्वरूप होता है और दुखों की स्तिथि को भी प्रसन्नता पूर्वक ही लेता है, और प्रसन्न रहता है संत के मन में कभी भी पाप वासना नहीं रहती। वह सत्य पर अडिग रहता है। संत समदर्शी होता है, और सब का भला सोचने और करने वाला होता है। उसकी बुद्धि कभी भी कामनाओं के चक्कर में नहीं फंसती और वह सदैव प्रसन्न रहने वाला व्यक्ति होता है।
संत स्वभाव का ही नाम होता है ।संत संयमी मधुर स्वभाव वाले ,और पवित्र होते हैं ।संत सदैव संग्रह और परिग्रह से बचने की कोशिश करते हैं ।वे किसी वस्तु की प्राप्ति के लिए विशेष प्रयत्न नहीं करते।वे सरल भोजन करके, शांत रहते हैं। उनकी बुद्धि काम, क्रोध लोभ, मोह से से हटकर होती है।
भगवत कृपा से जब संत जीवन में आते हैं तब स्वत ही सत्संग में रुचि बढ़ जाती है, सत्कार्य होने लगता है सत चिंतन बढ़ जाता है, और हमारे जीवन की चमक बढ़ने लगती है।
संत को आत्म तत्व का ज्ञान होता है। वह प्रमाद रहित, गंभीर स्वभाव वाला, और धैर्यवान होते हैं ।संत के भूख, प्यास ,शोक ,और मोह आदि उनके वश में होते हैं।
संत सदैव दूसरे को सम्मान देने वाला होता है, किंतु उसे स्वयं को सम्मान मिलने की कोई चाह नहीं होती। संत की पूछ और सम्मान उसके पीछे से होता है ऐसाभी देखा जाता है।
भगवत बातों को समझाने में संत बहुत निपुण होते हैं ।वे सब से मित्रता का व्यवहार करते हैं। उनके हृदय में करुणा भरी होती है ,उनको अदृश्य शक्तियों के तत्व का यथार्थ ज्ञान होता है वह किसी को भी उस ज्ञान को समझाने में मास्टर होते हैं।
संत सिर्फ अदृश्य शक्तियों को ही मानने वाले होते हैं वह अन्य किसी पर विश्वास नहीं करते वे अनुभव से सिर्फ और सिर्फ उस परम सत्ता पर ही विश्वास करते हैं और उनके परम भक्त होते हैं।
संतो को कथा सुनने में और ध्यान करने में काफी रुचि रहती है। वे सदैव प्रभु का ही ध्यान करते हैं ,उनके दिव्य जन्म और कर्म की चर्चा करते हैं। उनके पर्व जैसे रामनवमी और जन्माष्टमी को बहुत धूमधाम से संगीत , केसाथ नाच कर गाजे बाजे के साथ उनके मंदिरों में इन उत्सव को धूमधाम से आयोजन करते हैं। उनकी प्रसन्नता लिए वार्षिक त्योहारों के दिन संत जुलूस निकालते हैं, और विविध उपहारों के द्वारा अदृश्य शक्तियों की पूजा करते हैं ,मंदिरों में मूर्तियों की स्थापना में भी उनकी श्रद्धा होती है और वे उनके व्रतों का भी पालन करते हैं।
संत अदृश्य शक्तियों की सेवा के लिए पुष्प वाटिका, बगीचे ,खेलने के स्थान ,और मंदिर का निर्माण कराते हैं, जिसका लाभ जनमानस को मिलता है। वहीं मंदिरों की झाड़ू और आदि करने में भी वे हिचकीचाहत नहीं करते ,और कुछ करते भी हैं तो उसका वे प्रचार नहीं करते।
संत ,सूर्य ,अग्नि ,रामायण, वैष्णव ,आकाश, जल, पृथ्वी, आत्मा, और समस्त प्राणियों को उनकी पूजा का स्थान मानते हैं उनका ही रूप मानते हैं।
ऋग्वेद ,यजुर्वेद, सामवेद,q के मंत्रों के द्वारा सूर्य में पूजा में बहुत विश्वास रखते हैं।
वैष्णो में उनकी बहुत भक्ति होती है । अतिथिय द्वारा अतिथि के रूप में ब्राह्मण देव, को सम्मान करके भोजन कराते हैं। हवन के द्वारा अग्नि में उनकी उपासना करते हैं, और हरी हरी घास खिला कर गाय के स्वरूप में उनकी पूजा करते हैं।
संत सभी प्राणियों में आत्मा के रूप में उन परम शक्तियों का ही दर्शन करते हैं और उनका सम्मान करते हैं।
संत ,सत्संग ,और भक्ति योग के महत्व को जानते हैं और वह यह बात भी जानते हैं कि संसार से पार होने के लिए इसके अलावा कोई उपाय नहीं है ।वे यह जानते हैं भगवान के नाम का जप और सत्संग ही इस संसार से कल्याण करा सकता है।
संत पुरुष को कभी किसी वस्तु की अपेक्षा नहीं होती ,उनका चित् दें उन अदृश्य शक्तियों में या ब्रह्म, में लगा रहता है ,और उन्हें उनका उन पर ही पूरा भरोसा होता है विश्वास होता है। उनके हृदय में शांति का आगाज समुद्र लहराता होता है। वह सदैव सब में सदा सर्वत्र अदृश्य शक्ति उस ब्रह्म, का ही दर्शन करते हैं।उनमें अहंकार का लेश भी नहीं होता, उनके पास सदैव लीला कथाओं का और ब्रह्मांड की शक्तियों की चर्चा होती है। यह संत उस ब्रम्हांडनायक पर इतना भरोसा करते हैं ,जैसे अग्नि का आश्रय लेने वाले को शीतलता का भय और अंधकार का दुख नहीं हो सकता। जो इस संसार में डूबता महसूस करें उनके लिए ब्रह्म ज्ञानी और शांत संत ही एकमात्र आश्रय हैं । संत अनुग्रहशील देवता स्वरूप होते हैं, या यूं कहे वह साक्षात परमात्मा के ब्रह्म के अवतार ही होते हैं।
संतों के स्वभाव में लेश मात्र भी दुएशभाव या दुर्भावना नहीं रहती। वे स्वार्थ रहित, सबके प्रेमी, बिना कोई स्वार्थ पर सब पर दया करने वाले ,अहंकार से रहित और उनके लिए सुख और दुख दोनों समान होते हैं। इन सभी स्वभाव से संतों को पहचाना जा सकता है।
वह मानव संत है, जो क्षमा वान है, अपराध करने वाले को भी अभय देने वाला है ।सदा संतुष्ट रहता है ,अपने मन को वश में किए हुए रहता है ,और अदृश्य शक्तियों में जिनकी दृढ़ श्रद्धा और निश्चय रहता है। वे सदैव अपने मन और बुद्धि को अदृश्य शक्तियों को , भगवान या गुरु को अर्पण किए रहता है वही स्वभाव, सच्चा स्वभाव, संत सवभाव है।
संत स्वभाव का व्यक्ति वह है जो न कभी हर्षित होता न शोक करता है, ना किसी तरह की कामना रखता है। जो मान और अपमान दोनों ही स्थिति को एक समान देखता है। सर्दी और गर्मी , सुख और दुख रूपी द्वंद को सहन कर लेता है उस स्वभाव का नाम संत है।
संत की आज्ञा पालन करना उनकी आज्ञा मानना ही उनकी सच्ची सेवा है। संतों का स्वभाव ऐसा होता है कि वह भगवत चर्चा से बहुत ही तरोताजा महसूस करते हैं ,और खुश होते हैं ,वैसे संतो के पास हर प्रश्न का उत्तर होता है। संतो के संग रहने से हमारे जीवन में सद्गुण आते हैं। संतों के पीछे पीछे परमात्मा की सभी शक्तियां साथ में स्वता ही चली आती है। संतो से कभी तर्क ना करें । सदैव जिज्ञासु बन कर उनसे प्रश्न करें। संत से कभी झूठ ना बोले। सच्चा संत वही है जो अपमान करने वालों को भी रास्ता दिखाता है।
जिसके जीवन में संतों का संग हुआ उनके जीवन में उन्हें भगवान जरूर मिले,उन्होंने जरूर इस संसार में, सत्ता का, ब्रह्मांड का, और उसके परिवर्तनशील सिस्टम को जाना।
कभी-कभी ऐसा भी देखा जाता है संत हमारे जीवन में आते हैं, हमारे जीवन को गहराई से जानकर कभी कुछ ऐसी आज्ञा अनजाने में दे देते हैं, जिस का पालन करना हमारी बुद्धि कभी स्वीकार नहीं कर पाती और वहां ऐसा देखा जाता है विनाश ही होता है।जैसे हनुमान जी संत बन कर रावण के लंका में उसे समझाते हैं,कृष्ण शांति दूत बनकर दुर्योधन को समझाते हैं किंतु दोनों ही समझ नहीं पाते अपने अहंकार को छोड़ नहीं पाते और संतों की सलाह को नकार देते हैं और उनका विनाश होता है।
सच्चा संत और उसका संग जब प्रभु की विशेष कृपा होती है तभी होता है और वह संत हमारे जीवन में अपने ज्ञान द्वारा परिवर्तन लाने की पूरी सामर्थ्य रखता है। इस परिवर्तन को लाने में वह पूरा जोर लगाता है और हमारे अंदर उस परिवर्तन को लाकर ही रहता है ऐसा करके वो खुद भी प्रसन्न होता है और हमें भी खुशियों की खुशियों से सरोबार कर देता है।
धन्यवाद
जय श्री कृष्ण